रुद्रप्रयाग। .मुझे प्रेम की अमरपुरी में, अब रहने दो
अपना सब कुछ देकर, कुछ आंसू लेने दो,
प्रकृति के चितेरे कवि स्व. चन्द्र कुंवर बत्र्वाल ने जिस अल्प आयु में ही काव्य के क्षेत्र में नये आयामों को छुआ वहीं काव्य जगत का यह अधखिला कुसुम अपनी महक को दूर-दूर तक बिखेरता गया, लेकिन आज सरकारी अमले की उपेक्षा के चलते कवि के संघर्षमय जीवन व उनके उद्गार आम आदमी की पहुंच से दूर है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कवि की जन्म व कर्म स्थली उपेक्षित पड़ी हुई है।
जिले के सुरम्य गांव मालकोटी में 20 अगस्त 1919 को जन्में प्रकृति के चितेरे कवि स्व. चन्द्र कुंवर बत्र्वाल की जन्मस्थली व कर्म स्थली पवांलियां सरकारी उपेक्षा का शिकार है। दोनों स्थानों पर न तो कवि की कोई स्मृति और नहीं कोई ऐसी पहचान जो उनके संघर्षमय जीवन की यादें लोगों तक पहुंचा सके। कवि की प्राइमरी शिक्षा उडमांडा, मिडिल नागनाथ तथा हाईस्कूल मैसमूर पौड़ी से सम्पन्न हुई। सभी जगह-जगह प्रकृति के अपूर्व दर्शन का उनको मौका मिला और इसका प्रभाव उन पर छात्र जीवन से ही पड़ने लगा। पन्द्रह वर्ष की अल्प आयु में ही उनकी लेखनी साहित्य सृजन की ओर ढलने लगी। इसी क्रम में वर्ष 1934-35 में क्षत्रियवीर नामक कविता ने उन्हे एक नयी पहचान चन्द्र कुंवर के रूप में दी। इसके बाद कविता, कहानी, नाटक आदि लिखने का सिलसिला चलता रहा, साथ ही पढ़ाई भी। इंटरमीडिएट डीएवी देहरादून से उत्तीर्ण करने के बाद वे अग्रिम शिक्षा के लिए लखनऊ चले गए जहां उनका परिचय अनेक कवियों व साहित्यकारों से हुआ और उन्होंने काव्य जगत के क्षेत्र में नये आयाम छूने शुरू कर दिए, लेकिन विधाता को यह सब मंजूर नहीं था, इसी वक्त काल ने ऐसा चक्र चलाया कि वह गम्भीर रोग का शिकार हो गए। रोग की असाध्यता और उपचार की असमर्थता उन्हे घर की ओर ले आयी। इसे देख कवि ने सुरक्षित स्थान पवांलियां(भीरी के पास)अपना आशियाना बनाया तथा निरंतर स्वास्थ्य में गिरावट आने के बाद लेखनी से उनका संघर्ष जारी रहा। 14 सितम्बर 1947 की रात 28 वर्ष की अल्प आयु में कवि दुनिया को अलविदा कहकर चल दिए। आज जहां कवि की मृत्यु के भी लगभग साठ वर्ष व देश स्वतंत्रता के भी साठ साल गुजर चुके है, लेकिन कवि की रचनाएं व पहचान आज भी उपेक्षा का दंश झेल रही है।
Sunday, August 19, 2007
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